Saturday 25 August 2012

आसाम दंगों के बहाने अजमल अपनी राजनीति कर रहे हैं.

आसाम दंगों के बहाने अजमल अपनी राजनीति कर रहे हैं.


ये अजमल कसाब तो नहीं है लेकिन इनका काम अजमल कसाब से भी खतरनाक है. इनका नाम है बदरुद्दीन अजमल कासिम. आसाम के एक स्थानीय पार्टी आल इंडिया युनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (एआईयूडीएफ) के अध्यक्ष हैं और धुबरी से लोकसभा का प्रतनिधित्व करते हैं. आसाम का वही धुबरी जहां से आसाम के दंगों की शुरूआत हुई. धुबरी में 75 फीसदी से अधिक मुस्लिम आबादी है इसलिए बदरूद्दीन अजमल इस इलाके के बेताज बादशाह हैं.
आसाम में जो ताजा दंगे शुरू हुए उनके बारे में रपटें बताई गईं कि 19 जुलाई को कोकराझार में दो मुस्लिम छात्र नेताओं रातुल अहमद और सिद्दीक शेख पर हमला कर दिया जिसके बाद दंगे की शुरूआत हुई.
ये दोनों ही छात्र नेता एक अल्पसंख्यक मुस्लिम संगठन से जुड़े हुए थे जिसका नाम है आल आसाम माइनारिटी स्टूडेन्ट यूनियन. इस संस्था के बारे में इतना ही जानना काफी है कि वह आसाम में मुसलमानों के हित के लिए काम करती है. इसी छात्र संगठन पर तथाकथित बोडो नेताओं के हमले के बाद रातों रात प्रतिक्रियावाद और बदला लेने की जो शुरूआत हुई उसका परिणाम यह हुआ कि 20 जुलाई को आसाम का कोकराझार, धुबरी इलाका पूरी तरह से जल उठा. हजारों लोगों को उनके घरों से या तो बाहर निकाल दिया गया या फिर वे अपने घरों को छोड़कर अज्ञात स्थान की ओर आगे बढ़ गये. 
यह खबर तो आई लेकिन यह खबर दब गई कि बोडो चरमपंथियों ने इन छात्र नेताओं पर हमला क्यों किया? यह जानकारी बहुत कम सामने आ पाई कि असम में जून महीने से ही बोडो लोगों पर छुटपुट हमले हो रहे थे. आज शरणार्थी शिविरों में जो लोग रहे हैं उसमें कई लोगों ने स्वीकार किया है कि उनके ऊपर मुस्लिम दंगाइयों ने जून में हमला किया था और उनके घरों को आग लगा दी थी.
आसाम से लौटकर आई एक फैक्ट फाइंडिग कमेटी ने 10 अगस्त को जो रिपोर्ट सार्वजनिक किया उसके अनुसार आसाम में दंगों की आग भड़काने में कांग्रेस के तीन मुस्लिम मंत्री जिम्मेदार हैं. इसके साथ ही इस फैक्ट फाइडिंग कमेटी ने दो सांसदों को भी इसके लिए जिम्मेदार ठहराया है. इनके नाम हैं रानी नारा और बदरूद्दीन अजमल. कांग्रेस के मंत्रियों और शीर्ष नेताओं की राजनीति बाद में पहले जरा बदरुद्दीन महाशय के बारे में.
बदरुद्दीन ही वह शख्स हैं जिनके प्रभाव के कारण पूरे देश के मुसलमानों में गुस्से की लहर दौड़ गई है. मुंबई में दंगा भड़कते भड़कते रह गया. लखनऊ और इलाहाबाद में स्थितियां तनावपूर्ण बन चुकी हैं. हैदराबाद में 18 अगस्त को मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन ने एक बड़ी रैली आयोजित करके आसाम के मुसलमानों के लिए पूरे मुस्लिम समाज से सहयोग करने की अपील की. अगर अंदर ही अंदर देशभर में मुस्लिम संगठन आसाम दंगों पर अपनी नाराजगी जाहिर कर रहे हैं और रहकर उनका गुस्सा फूट रहा है तो स्वाभाविक तौर पर सवाल उठता है कि आखिर आसाम दंगों के बारे में वे जानकारियां मुसलमानों तक कैसे पहुंच रही हैं जो मीडिया से भी नदारद हैं? यह अजमल की कद काठी का कमाल है जो कि आसाम में अतरवाले के नाम से भी जाने जाते हैं. यह अतरवाला अजमल आज की तारीख में न सिर्फ आसाम का रसूखदार और पैसेवाला मुसलमान है बल्कि उसका शिक्षा कारोबार आसाम से लेकर मुंबई तक फैला हुआ है. शिक्षा के कारोबार को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने बाकायदा एक एनजीओ मरकज उल मआरीफ बना रखा है. वे देवबंद की केन्द्रीय सलाहकार परिषद में भी हैं तो जमात-ए-उलमा-ए-हिन्द की सेन्ट्रल वर्किंग कमेटी के भी मेम्बर हैं. अजमल अपने इन्हीं संबंधों का फायदा उठा रहे हैं उनके दिये संदेशों को देश के दो बड़े मुस्लिम संस्थान अपने अपने संपर्कों के जरिए शेष देश के मुसलमानों में पहुंचा रही हैं और मुसलमान आसाम के सवाल पर उद्वेलित हो रहा है. 

लेकिन इस आर्थिक और धार्मिक ताकत के अलावा भी अजमल आसाम में अपने लिए मजबूत राजनीतिक जमीन तैयार कर रहे हैं. फिलहाल तो उनकी अपनी राजनीतिक पार्टी है और वे उनकी पार्टी यूपीए का एक घटक दल भी है जो केन्द्र में कांग्रेस को सपोर्ट कर रहा है जबकि राज्य में वह मुख्य विपक्षी दल है. कांग्रेस के अंदर तरुण गोगोई का धड़ा अजमल के खिलाफ रहता है. गोगोई और अजमल का यह विरोध 2001 से चल रहा है जब गोगोई ने अजमल की पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़ने से इंकार कर दिया था. अजमल वैसे तो सबके सामने तरुण गोगोई को अपना दोस्त बताते हैं लेकिन अंदरखाने वे सोनिया गांधी को जब तब अप्रोच करके गोगोई को हटाने की सिफारिशें करते रहते हैं. क्योंकि वे जमात-ए-उलमा-ए-हिन्द के सेन्ट्रल वर्किंग कमेटी के मेम्बर है जिसका सोनिया गांधी पर अच्छा प्रभाव है इसलिए सोनिया दरबार में अजमल गोगोई का राजनीतिक गला घोटने की कई बार कोशिश कर चुका है. लेकिन अब तक वह असफल ही रहा है.
इस बार भी आसाम दंगों के बहाने अजमल अपनी राजनीति कर रहे हैं. कांग्रेस में इन दिनों अजमल हिमन्त शर्मा के करीबी हैं. हिमन्त शर्मा कुछ महीनों पहले तक तरुण गोगोई के सबसे खास मंत्री हुआ करते थे लेकिन हिमन्त को मुख्यमंत्री बनने का ख्वाब आने लगे. हो सकता है अजमल ने हिमन्त को यह ख्वाब दिखाया हो, या कारण कुछ और हो लेकिन हिमन्त शर्मा अपने राजनीतिक आका दिग्विजय सिंह के जरिए तरुण गोगोई को हटाकर उन्हें मुख्यमंत्री बनाने का दबाव बनाने लगे. आसाम से लेकर दिल्ली तक दबाव बढ़ता जा रहा था. दवाब कितना जबर्दस्त था कि दंगों के बाद कोकराझार के दौरे पर गये दिग्विजय सिंह ने कह दिया दंगों में राहत काम के लिए 2001 की जनगणना को नहीं बल्कि 2011 की जनगणना को आधार बनाया जाएगा. इसके बाद हालात और बिगड़ गये. निश्चित रूप से दिग्विजय सिंह ने यह बयान मुस्लिम नेताओं को खुश करने के लिए दिया था जिसका की असमी जनता पहले से विरोध कर रही थी. लेकिन क्योंकि असम से लेकर देश के दूसरे प्रदेशों में अजमल कांग्रेस से वोटों का सौदा कर रहा था इसलिए यह सच्चाई जानते हुए कि असम के लोगों को यह बात नहीं भायेगी, दिग्विजय सिंह ने कम्युनल पॉलिटिक्स का दामन नहीं छोड़ा. इसके अलावा ऐसे और कई कारण है जो असम में कांग्रेस और अजमल की कम्युनल जोड़ी बनाते हैं. अजमल कासिम लगातार दबाव बनाता रहा है कि बोडोलैण्ड टेरिटोरियल काउंसिल भंग कर दिया जाए जो कि बोडो लोगों को विशेष अधिकार देती है. लेकिन गोगोई के विरोध के कारण इस बारे में बात आगे नहीं जा पाती है.
शायद यही कारण है कि अजमल ने एक तरफ जहां तरुण गोगोई को कमजोर करने के लिए उन्हीं के विश्वासपात्र हिमन्त शर्मा को आगे बढ़ाया वहीं दूसरी ओर अपने संबंधों और संपर्कों का इस्तेमाल करते हुए कांग्रेस की वोटबैंक की राजनीति का सौदा भी करता रहा. यह तो भला हो सोनिया गांधी का जिन्होंने दबाव के बाद भी अपने असम दौरे के दौरान तरुण गोगोई को हटाने से मना कर दिया. इसके बाद से ही हिमन्त शर्मा अपने दफ्तर नहीं आ रहे हैं जिसके बाद इस बात की अफवाह फैली है कि उन्होंने इस्तीफा दे दिया है. हालांकि आधिकारिक तौर पर उनके इस्तीफे की कोई पुष्टि नहीं हुई है. बल्कि कांग्रेस के अंदर से ये खबरें जरूर बाहर आई हैं कि गोगई से गृह मंत्रालय वापस लेकर किसी और को यह जिम्मा दिया जा सकता है क्योंकि अभी गोगोई के पास गृह मंत्रालय के साथ साथ वित्त मंत्रालय भी है.
इसमें कोई दो राय नहीं कि आसाम में वर्तमान दंगों के इतिहास में कांग्रेस की मुस्लिमपरस्त राजनीति ही नजर आती रही है. लेकिन दंगों के बीच भी कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति कम नहीं हुई. यह नहीं हो सकता कि दिग्विजय सिंह को न पता हो कि अजमल कासिम आसाम में क्या चाहता है? फिर भी वे हिमन्त शर्मा के जरिए अजमल कासिम को पनाह दे रहे हैं तो कांग्रेस की कम्युनल पॉलिटिक्स की ही पोल खुलती है. असम में बोडो और मुस्लिमों के बीच जमीन का संघर्ष पांच दशक से भी अधिक पुराना हो गया है. यह बोडो लोगों का दुर्भाग्य ही है कि भूटान और नेपाल के बीच वे लगातार सिकुड़ते जा रहे हैं, शायद यही कारण है कि वे अपनी खोती जमीन को बचाने के लिए एक बार हिंसक हो चले हैं. लेकिन कांग्रेस क्या कर रही है? अपनी राजनीतिक रोटियां सेकने के लिए वह एक ऐसे आदमी को बढ़ावा दे रही है जो प्रदेश की सत्ता को अपने कब्जे में लेना चाहती है. अजमल खुद कहता रहा है कि गोगोई उसकी पार्टी को नेस्तनाबूत करना चाहते हैं. जाहिर है, इसके बाद वह भी गोगोई को चैन से कहां बैठने देगा? तो क्या अब वक्त नहीं है कि कांग्रेस अगर सचमुच राज्य में शांति चाहती है तो अपने मुख्यमंत्री का साथ दे और उस अजमल पर लगाम लगाये जो कांग्रेस की आंतरिक राजनीति का इस्तेमाल अपने राजनीतिक फायदे के लिए कर रहा है लेकिन इसका खामियाजा पूरे आसाम को भुगतना पड़ रहा है

Friday 17 August 2012

असम की आग यूपी में भड़की: बलवाइयों ने महिलाओं के कपड़े तक फाड़े


असम की आग यूपी में भड़की: बलवाइयों ने महिलाओं के कपड़े तक फाड़े


असम और म्यांमार में हुई हिंसा के विरोध में शुक्रवार को एक खास समुदाय के लोग यूपी में भी सड़कों पर उतर गए। 

 अलविदा की नमाज के बाद लखनऊ, कानपुर और इलाहाबाद में भीड़ ने जम कर उत्‍पात मचाया। उपद्रवियों ने जम कर ईंट-पत्थर बरसाए, तोड़फोड़ और लूटपाट की। जम्मू-कश्मीर में भी मस्जिद से निकले युवाओं ने पुलिस पर पथराव किया जिसमें दो पुलिसकर्मियों समेत सात लोग घायल हुए। 


लखनऊ में बुद्ध पार्क घूमने गई महिलाओं को घेरकर उनके कपड़े तक फाड़ दिए गए। शांति और अहिंसा का संदेश देने वाले भगवान बुद्ध की मूर्ति को भी नहीं बख्‍शा गया। स्थिति बिगड़ने की आशंका से रात में इलाहाबाद के कोतवाली थाना क्षेत्र में कर्फ्यू लगा दिया गया है। पूरे उत्तर प्रदेश में हाई अलर्ट है।

 लखनऊ में नमाज के बाद पक्का पुल से हंगामा शुरू हुआ। टीलेवाली मस्जिद व आसफी इमामबाड़े में अलविदा की नमाज के बाद लोगों ने विधान भवन की ओर कूच कर दिया और वहां तोड़फोड़ की।
पुलिस-प्रशासन को इसकी आशंका तक नहीं थी, क्‍योंकि अधिकारी जब तक माजरा समझ पाते तब तक करीब एक हजार प्रदर्शनकारी गौतम बुद्ध पार्क पहुंच गए। कुछ ने पार्क की रेलिंग तोड़नी शुरू की तो कुछ ने स्वतंत्रता दिवस पर लगाई झालरों को नोच डाला। 



इसके बाद सैकड़ों लोग पार्क में कूद गए और टिकट खिड़की पर तोड़फोड़ कर पार्क में मौजूद पुरुषों, महिलाओं, बच्चों और कर्मचारियों को पीटने लगे। कुछ महिला पर्यटकों के कपड़े भी फाड़ दिए गए। कई गाड़ियां भी तोड़ दी गईं |

 for more detail on Danik Bhaskar, click here :

http://www.bhaskar.com/article/NAT-violence-in-up-3664966-NOR.html?next=y&img=&seq=6&imgname=#photo_bm


क्या मुंबई पुलिस पर शहर में दंगा करने वाले लोगों को गिरफ्तार न करने का दबाव था?

क्या मुंबई पुलिस  शहर में दंगा करने वाले लोगों को गिरफ्तार न करने का दबाव था? 


दंगे के दौरान एक शख्स को गिरफ्तार करने वाले डीसीपी पर मुंबई पुलिस कमिश्नर अरूप पटनायक जिस तरह भड़के उससे तो यही लगता है। कमिश्नर ने डीसीपी को जम
कर झाड़ लगाई और उस शख्स को छोड़ने का आदेश दिया।

 इसके अलावा अमर जवान ज्योति स्मारक को लात मारकर क्षति पहुंचाने वाले शख्स की पहचान होने के बाद भी उसकी गिरफ्तारी न
हीं किए जाने से मुंबई पुलिस पर सवाल उठ रहे हैं।

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लगता तो ये ही है की यह धर्म निरपेक्ष सरकार के निर्देश थे क्योकि सत्ता मे रहने के लिए इनको अवैध बांग्लादेशियो के वोटो की ज़रूरत है | ये लोग सत्ता मे रहने के लिए पाकिस्तानियो से भी कोई सौदेबाज़ी करने मे हिचकिचाएंगे नही
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न्यूज चैनल्स पर दिखाए गए और यू-ट्यूब पर अपलोड किए गए एक विडियो के मुताबिक, एक दंगाई को जब डीसीपी डीसीपी रवींद्र शिश्वे ने गिरफ्तार किया तो उनपर कमिश्नर पटनायक भड़क गए।

 पटनायक ने कहा, 'इसे गिरफ्तार करने के लिए आपको किसने बोला?' पटनायक यहीं तक नहीं रुके। उन्होंने डीसीपी को सस्पेंड करने की धमकी भी दे डाली। पटनायक ने कहा, 'आप सांगली के एसपी नहीं हैं, आप मुंबई के डीसीपी हैं। आपको जो कहा जा रहा है, उसे फॉलो कीजिए, नहीं तो सस्पेंड कर दिए जाएंगे।' उन्होंने डीसीपी को यह भी कहा कि मैं मुंबई का पुलिस कमिश्नर हूं और आप मेरे निर्देशों का पालन कीजिए। इसके बाद डीसीपी ने उस शख्स को छोड़ दिया।



हिन्दुत्ववादी संगठन करती ऐसी उत्पात तो मिडिया पता नहीं कितने दिन छाती पिटती ?
किस पार्टी का नेता नहीं बौखलाता ...देश का कौन सा सुरक्षा एजेंसी कुत्तो के तरह पीछे नहीं लग जाता ?
अब क्या हुआ मुल्लो के उत्पात पर चुप क्यों है मिडिया और राजनीती म
ाफिया ?

मिडिया जब मार खाती है तो ऐसे ही चुप्पी साधती है सेकुलर मिडिया के अम्मी बहन क्या मुल्लो के रखैल है ?
जो मुल्लो के उत्पात पर आँखें बंद कर लेती है .....और अगर हिन्दू करे तो जो मयूजिक पर इनकी अम्मी बहन
मुजरा करते है वही म्यूजिक के साथ हमारी खबर दिखाते है ......निष्पक्ष मिडिया इसी को कहते है ?
पुलिस वाले कश्मीर से कन्याकुमारी तक मुल्लो से ही मार खाते है .............इनका अफसर नताओ के आगे
कुत्ते के तरह पूछ जो हिलाते है ...
मुंबई पुलिस पर दंगाइयों को गिरफ्तार न करने का दबाव था?
http://navbharattimes.indiatimes.com/mumbai-top-cops-you-tube-trouble/articleshow/15512477.cms

Saturday 4 August 2012

ताजमहल वास्तव में शिव मंदिर है - 1

ताजमहल वास्तव में शिव मंदिर है - 1

ताजमहल और गुम्बद के सामने का दृश्य 


श्री पी.एन. ओक अपनी पुस्तक Tajmahal is a Hindu Temple Palace में 100 से भी अधिक प्रमाण एवं तर्क देकर दावा करते हैं कि ताजमहल वास्तव में शिव मंदिर है जिसका असली नाम तेजोमहालय है। श्री पी.एन. ओक के तर्कों और प्रमाणों के समर्थन करने वाले छायाचित्रों का संकलन भी है (देखने के लिये क्लिक करें)। 


श्री ओक ने कई वर्ष पहले ही अपने इन तथ्यों और प्रमाणों को प्रकाशित कर दिया था पर दुःख की बात तो यह है कि आज तक उनकी किसी भी प्रकार से अधिकारिक जाँच नहीं हुई। यदि ताजमहल के शिव मंदिर होने में सच्चाई है तो भारतीयता के साथ बहुत बड़ा अन्याय है। विद्यार्थियों को झूठे इतिहास की शिक्षा देना स्वयं शिक्षा के लिये अपमान की बात है।

क्या कभी सच्चाई सामने आ पायेगी?

श्री पी.एन. ओक का दावा है कि ताजमहल शिव मंदिर है जिसका असली नाम तेजो महालय है। इस सम्बंध में उनके द्वारा दिये गये तर्कों का हिंदी रूपांतरण (भावार्थ) इस प्रकार हैं -


नाम

1. शाहज़हां और यहां तक कि औरंगज़ेब के शासनकाल तक में भी कभी भी किसी शाही दस्तावेज एवं अखबार आदि में ताजमहल शब्द का उल्लेख नहीं आया है। ताजमहल को ताज-ए-महल समझना हास्यास्पद है।

2. शब्द ताजमहल के अंत में आये 'महल' मुस्लिम शब्द है ही नहीं, अफगानिस्तान से लेकर अल्जीरिया तक किसी भी मुस्लिम देश में एक भी ऐसी इमारत नहीं है जिसे कि महल के नाम से पुकारा जाता हो।

3. साधारणतः समझा जाता है कि ताजमहल नाम मुमताजमहल, जो कि वहां पर दफनाई गई थी, के कारण पड़ा है। यह बात कम से कम दो कारणों से तर्कसम्मत नहीं है - पहला यह कि शाहजहां के बेगम का नाम मुमताजमहल था ही नहीं, उसका नाम मुमताज़-उल-ज़मानी था और दूसरा यह कि किसी इमारत का नाम रखने के लिय मुमताज़ नामक औरत के नाम से "मुम" को हटा देने का कुछ मतलब नहीं निकलता।

4. चूँकि महिला का नाम मुमताज़ था जो कि ज़ अक्षर मे समाप्त होता है न कि ज में (अंग्रेजी का Z न कि J), भवन का नाम में भी ताज के स्थान पर ताज़ होना चाहिये था (अर्थात् यदि अंग्रेजी में लिखें तो Taj के स्थान पर Taz होना था)।

5. शाहज़हां के समय यूरोपीय देशों से आने वाले कई लोगों ने भवन का उल्लेख 'ताज-ए-महल' के नाम से किया है जो कि उसके शिव मंदिर वाले परंपरागत संस्कृत नाम तेजोमहालय से मेल खाता है। इसके विरुद्ध शाहज़हां और औरंगज़ेब ने बड़ी सावधानी के साथ संस्कृत से मेल खाते इस शब्द का कहीं पर भी प्रयोग न करते हुये उसके स्थान पर पवित्र मकब़रा शब्द का ही प्रयोग किया है। 


6. मकब़रे को कब्रगाह ही समझना चाहिये, न कि महल। इस प्रकार से समझने से यह सत्य अपने आप समझ में आ जायेगा कि कि हुमायुँ, अकबर, मुमताज़, एतमातुद्दौला और सफ़दरजंग जैसे सारे शाही और दरबारी लोगों को हिंदू महलों या मंदिरों में दफ़नाया गया है।

7. और यदि ताज का अर्थ कब्रिस्तान है तो उसके साथ महल शब्द जोड़ने का कोई तुक ही नहीं है।

8. चूँकि ताजमहल शब्द का प्रयोग मुग़ल दरबारों में कभी किया ही नहीं जाता था, ताजमहल के विषय में किसी प्रकार की मुग़ल व्याख्या ढूंढना ही असंगत है। 'ताज' और 'महल' दोनों ही संस्कृत मूल के शब्द हैं।





मंदिर परंपरा


गुम्बद और शिखर के पास का दृश्य.....




9. ताजमहल शिव मंदिर को इंगित करने वाले शब्द तेजोमहालय शब्द का अपभ्रंश है। तेजोमहालय मंदिर में अग्रेश्वर महादेव प्रतिष्ठित थे।

10. संगमरमर की सीढ़ियाँ चढ़ने के पहले जूते उतारने की परंपरा शाहज़हां के समय से भी पहले की थी जब ताज शिव मंदिर था। यदि ताज का निर्माण मक़बरे के रूप में हुआ होता तो जूते उतारने की आवश्यकता ही नहीं होती क्योंकि किसी मक़बरे में जाने के लिये जूता उतारना अनिवार्य नहीं होता।

11. देखने वालों ने अवलोकन किया होगा कि तहखाने के अंदर कब्र वाले कमरे में केवल सफेद संगमरमर के पत्थर लगे हैं जबकि अटारी व कब्रों वाले कमरे में पुष्प लता आदि से चित्रित पच्चीकारी की गई है। इससे साफ जाहिर होता है कि मुमताज़ के मक़बरे वाला कमरा ही शिव मंदिर का गर्भगृह है।

12. संगमरमर की जाली में 108 कलश चित्रित उसके ऊपर 108 कलश आरूढ़ हैं, हिंदू मंदिर परंपरा में 108 की संख्या को पवित्र माना जाता है।




13. ताजमहल के रख-रखाव तथा मरम्मत करने वाले ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने कि प्राचीन पवित्र शिव लिंग तथा अन्य मूर्तियों को चौड़ी दीवारों के बीच दबा हुआ और संगमरमर वाले तहखाने के नीचे की मंजिलों के लाल पत्थरों वाले गुप्त कक्षों, जिन्हें कि बंद (seal) कर दिया गया है, के भीतर देखा है।

14. भारतवर्ष में 12 ज्योतिर्लिंग है। ऐसा प्रतीत होता है कि तेजोमहालय उर्फ ताजमहल उनमें से एक है जिसे कि नागनाथेश्वर के नाम से जाना जाता था क्योंकि उसके जलहरी को नाग के द्वारा लपेटा हुआ जैसा बनाया गया था। जब से शाहज़हां ने उस पर कब्ज़ा किया, उसकी पवित्रता और हिंदुत्व समाप्त हो गई।


शिखर के ठीक पास का दृश्य.......


15. वास्तुकला की विश्वकर्मा वास्तुशास्त्र नामक प्रसिद्ध ग्रंथ में शिवलिंगों में 'तेज-लिंग' का वर्णन आता है। ताजमहल में 'तेज-लिंग' प्रतिष्ठित था इसीलिये उसका नाम तेजोमहालय पड़ा था।

16. आगरा नगर, जहां पर ताजमहल स्थित है, एक प्राचीन शिव पूजा केन्द्र है। यहां के धर्मावलम्बी निवासियों की सदियों से दिन में पाँच शिव मंदिरों में जाकर दर्शन व पूजन करने की परंपरा रही है विशेषकर श्रावन के महीने में। पिछले कुछ सदियों से यहां के भक्तजनों को बालकेश्वर, पृथ्वीनाथ, मनकामेश्वर और राजराजेश्वर नामक केवल चार ही शिव मंदिरों में दर्शन-पूजन उपलब्ध हो पा रही है। वे अपने पाँचवे शिव मंदिर को खो चुके हैं जहां जाकर उनके पूर्वज पूजा पाठ किया करते थे। स्पष्टतः वह पाँचवाँ शिवमंदिर आगरा के इष्टदेव नागराज अग्रेश्वर महादेव नागनाथेश्वर ही है जो कि तेजोमहालय मंदिर उर्फ ताजमहल में प्रतिष्ठित थे।

17. आगरा मुख्यतः जाटों की नगरी है। जाट लोग भगवान शिव को तेजाजी के नाम से जानते हैं। The Illustrated Weekly of India के जाट विशेषांक (28 जून, 1971) के अनुसार जाट लोगों के तेजा मंदिर हुआ करते थे। अनेक शिवलिंगों में एक तेजलिंग भी होता है जिसके जाट लोग उपासक थे। इस वर्णन से भी ऐसा प्रतीत होता है कि ताजमहल भगवान तेजाजी का निवासस्थल तेजोमहालय था।




ताजमहल वास्तव में शिव मंदिर है - 2

ताजमहल वास्तव में शिव मंदिर है - 2



प्रामाणिक दस्तावेज


18. बादशाहनामा, जो कि शाहज़हां के दरबार के लेखाजोखा की पुस्तक है, में स्वीकारोक्ति है (पृष्ठ 403 भाग 1) कि मुमताज को दफ़नाने के लिये जयपुर के महाराजा जयसिंह से एक चमकदार, बड़े गुम्बद वाला विशाल भवन (इमारत-ए-आलीशान व गुम्ब़ज) लिया गया जो कि राजा मानसिंह के भवन के नाम से जाना जाता था।

19. ताजमहल के बाहर पुरातत्व विभाग में रखे हुये शिलालेख में वर्णित है कि शाहज़हां ने अपनी बेग़म मुमताज़ महल को दफ़नाने के लिये एक विशाल इमारत बनवाया जिसे बनाने में सन् 1631 से लेकर 1653 तक 22 वर्ष लगे। यह शिलालेख ऐतिहासिक घपले का नमूना है। पहली बात तो यह है कि शिलालेख उचित व अधिकारिक स्थान पर नहीं है। दूसरी यह कि महिला का नाम मुमताज़-उल-ज़मानी था न कि मुमताज़ महल। तीसरी, इमारत के 22 वर्ष में बनने की बात सारे मुस्लिम वर्णनों को ताक में रख कर टॉवेर्नियर नामक एक फ्रांसीसी अभ्यागत के अविश्वसनीय रुक्के से येन केन प्रकारेण ले लिया गया है जो कि एक बेतुकी बात है।

20. शाहजादा औरंगज़ेब के द्वारा अपने पिता को लिखी गई चिट्ठी को कम से कम तीन महत्वपूर्ण ऐतिहासिक वृतान्तों में दर्ज किया गया है, जिनके नाम 'आदाब-ए-आलमगिरी', 'यादगारनामा' और 'मुरुक्का-ए-अकब़राबादी' (1931 में सैद अहमद, आगरा द्वारा संपादित, पृष्ठ 43, टीका 2) हैं। उस चिट्ठी में सन् 1662 में औरंगज़ेब ने खुद लिखा है कि मुमताज़ के सातमंजिला लोकप्रिय दफ़न स्थान के प्रांगण में स्थित कई इमारतें इतनी पुरानी हो चुकी हैं कि उनमें पानी चू रहा है और गुम्बद के उत्तरी सिरे में दरार पैदा हो गई है। इसी कारण से औरंगज़ेब ने खुद के खर्च से इमारतों की तुरंत मरम्मत के लिये फरमान जारी किया और बादशाह से सिफ़ारिश की कि बाद में और भी विस्तारपूर्वक मरम्मत कार्य करवाया जाये। यह इस बात का साक्ष्य है कि शाहज़हाँ के समय में ही ताज प्रांगण इतना पुराना हो चुका था कि तुरंत मरम्मत करवाने की जरूरत थी।

21. जयपुर के भूतपूर्व महाराजा ने अपनी दैनंदिनी में 18 दिसंबर, 1633 को जारी किये गये शाहज़हां के ताज भवन समूह को मांगने के बाबत दो फ़रमानों (नये क्रमांक आर. 176 और 177) के विषय में लिख रखा है। यह बात जयपुर के उस समय के शासक के लिये घोर लज्जाजनक थी और इसे कभी भी आम नहीं किया गया।

22. राजस्थान प्रदेश के बीकानेर स्थित लेखागार में शाहज़हां के द्वारा (मुमताज़ के मकबरे तथा कुरान की आयतें खुदवाने के लिये) मरकाना के खदानों से संगमरमर पत्थर और उन पत्थरों को तराशने वाले शिल्पी भिजवाने बाबत जयपुर के शासक जयसिंह को जारी किये गये तीन फ़रमान संरक्षित हैं। स्पष्टतः शाहज़हां के ताजमहल पर जबरदस्ती कब्ज़ा कर लेने के कारण जयसिंह इतने कुपित थे कि उन्होंने शाहज़हां के फरमान को नकारते हुये संगमरमर पत्थर तथा (मुमताज़ के मकब़रे के ढोंग पर कुरान की आयतें खोदने का अपवित्र काम करने के लिये) शिल्पी देने के लिये इंकार कर दिया। जयसिंह ने शाहज़हां की मांगों को अपमानजनक और अत्याचारयुक्त समझा। और इसीलिये पत्थर देने के लिये मना कर दिया साथ ही शिल्पियों को सुरक्षित स्थानों में छुपा दिया।

23. शाहज़हां ने पत्थर और शिल्पियों की मांग वाले ये तीनों फ़रमान मुमताज़ की मौत के बाद के दो वर्षों में जारी किया था। यदि सचमुच में शाहज़हां ने ताजमहल को 22 साल की अवधि में बनवाया होता तो पत्थरों और शिल्पियों की आवश्यकता मुमताज़ की मृत्यु के 15-20 वर्ष बाद ही पड़ी होती।

24. और फिर किसी भी ऐतिहासिक वृतान्त में ताजमहल, मुमताज़ तथा दफ़न का कहीं भी जिक्र नहीं है। न ही पत्थरों के परिमाण और दाम का कहीं जिक्र है। इससे सिद्ध होता है कि पहले से ही निर्मित भवन को कपट रूप देने के लिये केवल थोड़े से पत्थरों की जरूरत थी। जयसिंह के सहयोग के अभाव में शाहज़हां संगमरमर पत्थर वाले विशाल ताजमहल बनवाने की उम्मीद ही नहीं कर सकता था।


यूरोपीय अभ्यागतों के अभिलेख


25. टॉवेर्नियर, जो कि एक फ्रांसीसी जौहरी था, ने अपने यात्रा संस्मरण में उल्लेख किया है कि शाहज़हां ने जानबूझ कर मुमताज़ को 'ताज-ए-मकान', जहाँ पर विदेशी लोग आया करते थे जैसे कि आज भी आते हैं, के पास दफ़नाया था ताकि पूरे संसार में उसकी प्रशंसा हो। वह आगे और भी लिखता है कि केवल चबूतरा बनाने में पूरी इमारत बनाने से अधिक खर्च हुआ था। शाहज़हां ने केवल लूटे गये तेजोमहालय के केवल दो मंजिलों में स्थित शिवलिंगों तथा अन्य देवी देवता की मूर्तियों के तोड़फोड़ करने, उस स्थान को कब्र का रूप देने और वहाँ के महराबों तथा दीवारों पर कुरान की आयतें खुदवाने के लिये ही खर्च किया था। मंदिर को अपवित्र करने, मूर्तियों को तोड़फोड़ कर छुपाने और मकब़रे का कपट रूप देने में ही उसे 22 वर्ष लगे थे।

26. एक अंग्रेज अभ्यागत पीटर मुंडी ने सन् 1632 में (अर्थात् मुमताज की मौत को जब केवल एक ही साल हुआ था) आगरा तथा उसके आसपास के विशेष ध्यान देने वाले स्थानों के विषय में लिखा है जिसमें के ताज-ए-महल के गुम्बद, वाटिकाओं तथा बाजारों का जिक्र आया है। इस तरह से वे ताजमहल के स्मरणीय स्थान होने की पुष्टि करते हैं।

27. डी लॉएट नामक डच अफसर ने सूचीबद्ध किया है कि मानसिंह का भवन, जो कि आगरा से एक मील की दूरी पर स्थित है, शाहज़हां के समय से भी पहले का एक उत्कृष्ट भवन है। शाहज़हां के दरबार का लेखाजोखा रखने वाली पुस्तक, बादशाहनामा में किस मुमताज़ को उसी मानसिंह के भवन में दफ़नाना दर्ज है।

28. बेर्नियर नामक एक समकालीन फ्रांसीसी अभ्यागत ने टिप्पणी की है कि गैर मुस्लिम लोगों का (जब मानसिंह के भवन को शाहज़हां ने हथिया लिया था उस समय) चकाचौंध करने वाली प्रकाश वाले तहखानों के भीतर प्रवेश वर्जित था। उन्होंने चांदी के दरवाजों, सोने के खंभों, रत्नजटित जालियों और शिवलिंग के ऊपर लटकने वाली मोती के लड़ियों को स्पष्टतः संदर्भित किया है।

29. जॉन अल्बर्ट मान्डेल्सो ने (अपनी पुस्तक `Voyages and Travels to West-Indies' जो कि John Starkey and John Basset, London के द्वारा प्रकाशित की गई है) में सन् 1638 में (मुमताज़ के मौत के केवल 7 साल बाद) आगरा के जन-जीवन का विस्तृत वर्णन किया है परंतु उसमें ताजमहल के निर्माण के बारे में कुछ भी नहीं लिखा है जबकि सामान्यतः दृढ़तापूर्वक यह कहा या माना जाता है कि सन् 1631 से 1653 तक ताज का निर्माण होता रहा है।


संस्कृत शिलालेख
30. एक संस्कृत शिलालेख भी ताज के मूलतः शिव मंदिर होने का समर्थन करता है। इस शिलालेख में, जिसे कि गलती से बटेश्वर शिलालेख कहा जाता है (वर्तमान में यह शिलालेख लखनऊ अजायबघर के सबसे ऊपर मंजिल स्थित कक्ष में संरक्षित है) में संदर्भित है, "एक विशाल शुभ्र शिव मंदिर भगवान शिव को ऐसा मोहित किया कि उन्होंने वहाँ आने के बाद फिर कभी अपने मूल निवास स्थान कैलाश वापस न जाने का निश्चय कर लिया।" शाहज़हां के आदेशानुसार सन् 1155 के इस शिलालेख को ताजमहल के वाटिका से उखाड़ दिया गया। इस शिलालेख को 'बटेश्वर शिलालेख' नाम देकर इतिहासज्ञों और पुरातत्वविज्ञों ने बहुत बड़ी भूल की है क्योंकि क्योंकि कहीं भी कोई ऐसा अभिलेख नहीं है कि यह बटेश्वर में पाया गया था। वास्तविकता तो यह है कि इस शिलालेख का नाम 'तेजोमहालय शिलालेख' होना चाहिये क्योंकि यह ताज के वाटिका में जड़ा हुआ था और शाहज़हां के आदेश से इसे निकाल कर फेंक दिया गया था।


शाहज़हां के कपट का एक सूत्र Archealogiical Survey of India Reports (1874 में प्रकाशित) के पृष्ठ 216-217, खंड 4 में मिलता है जिसमें लिखा है, great square black balistic pillar which, with the base and capital of another pillar....now in the grounds of Agra,...it is well known, once stood in the garden of Tajmahal".
अनुपस्थित गजप्रतिमाएँ

31. ताज के निर्माण के अनेक वर्षों बाद शाहज़हां ने इसके संस्कृत शिलालेखों व देवी-देवताओं की प्रतिमाओं तथा दो हाथियों की दो विशाल प्रस्तर प्रतिमाओं के साथ बुरी तरह तोड़फोड़ करके वहाँ कुरान की आयतों को लिखवा कर ताज को विकृत कर दिया, हाथियों की इन दो प्रतिमाओं के सूंड आपस में स्वागतद्वार के रूप में जुड़े हुये थे, जहाँ पर दर्शक आजकल प्रवेश की टिकट प्राप्त करते हैं वहीं ये प्रतिमाएँ स्थित थीं। थॉमस ट्विनिंग नामक एक अंग्रेज (अपनी पुस्तक "Travels in India A Hundred Years ago" के पृष्ठ 191 में) लिखता है, "सन् 1794 के नवम्बर माह में मैं ताज-ए-महल और उससे लगे हुये अन्य भवनों को घेरने वाली ऊँची दीवार के पास पहुँचा। वहाँ से मैंने पालकी ली और..... बीचोबीच बनी हुई एक सुंदर दरवाजे जिसे कि गजद्वार ('COURT OF ELEPHANTS') कहा जाता था की ओर जाने वाली छोटे कदमों वाली सीढ़ियों पर चढ़ा।"
कुरान की आयतों के पैबन्द

32. ताजमहल में कुरान की 14 आयतों को काले अक्षरों में अस्पष्ट रूप में खुदवाया गया है किंतु इस इस्लाम के इस अधिलेखन में ताज पर शाहज़हां के मालिकाना ह़क होने के बाबत दूर दूर तक लेशमात्र भी कोई संकेत नहीं है। यदि शाहज़हां ही ताज का निर्माता होता तो कुरान की आयतों के आरंभ में ही उसके निर्माण के विषय में अवश्य ही जानकारी दिया होता।

33. शाहज़हां ने शुभ्र ताज के निर्माण के कई वर्षों बाद उस पर काले अक्षर बनवाकर केवल उसे विकृत ही किया है ऐसा उन अक्षरों को खोदने वाले अमानत ख़ान शिराज़ी ने खुद ही उसी इमारत के एक शिलालेख में लिखा है। कुरान के उन आयतों के अक्षरों को ध्यान से देखने से पता चलता है कि उन्हें एक प्राचीन शिव मंदिर के पत्थरों के टुकड़ों से बनाया गया है।

कार्बन 14 जाँच
34. ताज के नदी के तरफ के दरवाजे के लकड़ी के एक टुकड़े के एक अमेरिकन प्रयोगशाला में किये गये कार्बन 14 जाँच से पता चला है कि लकड़ी का वो टुकड़ा शाहज़हां के काल से 300 वर्ष पहले का है, क्योंकि ताज के दरवाजों को 11वी सदी से ही मुस्लिम आक्रामकों के द्वारा कई बार तोड़कर खोला गया है और फिर से बंद करने के लिये दूसरे दरवाजे भी लगाये गये हैं, ताज और भी पुराना हो सकता है। असल में ताज को सन् 1115 में अर्थात् शाहज़हां के समय से लगभग 500 वर्ष पूर्व बनवाया गया था।